११ नवम्बर, १९९५ || ८:३५ – ८:५५
जब मैं ना था, वो तब भी था |
आज मेरा वजूद है, वो अब भी मौजूद है ||
कल मेरा साया भी ना रहेगा,
वो तब भी यहीं रहेगा |
ये ज़ालिम ज़माना बेदर्द था,
बेदर्द है, और बेदर्द ही रहेगा ||
एक वक़्त था वो कहते थे,
शिष्टाचार, समाजवाद, हमारा नारा है,
पर आज का ज़माना तो,
भ्रष्टाचार और जातिवाद का मारा है ||
जिसने भी आवाज़ उठाई,
बेचारे ने है जान गँवाई –
वाह रे ज़माने,
वाह रे खुदाई!
भूत-पिशाच अब आते नहीं,
वो इंसानों से डरते हैं,
उनके आचार-विचार देखकर,
उनकी पूजा करते हैं ||
वो दिन हैं फिर गए,
जब प्यार हमें था एक-दूजे से,
आज हम प्यार हैं करते,
सिर्फ मज़हब-औ-कौमों से ||
पर क्या ये हकीकत है? नहीं |
हकीकत में हममें प्यार है,
नेताओं में लड़ाई है,
कुर्सी पाने की होड़ में,
हम में फूट डलवाई है –
सिर्फ हो सके कुर्सी उनकी,
हमें दी जुदाई है ||
बदल डालो इस ज़माने को,
यहाँ रहते नहीं इंसान हैं,
इंसानियत है इनकी मर चुकी,
ये बन चुके हैवान हैं ||
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